8. मैं अपने भाइयों के साम्हने अजनबी हुआ, और अपने सगे भाइयों की दृष्टि में परदेशी ठहरा हूं॥
9. क्योंकि मैं तेरे भवन के निमित्त जलते जलते भस्म हुआ, और जो निन्दा वे तेरी करते हैं, वही निन्दा मुझ को सहनी पड़ी है।
10. जब मैं रोकर और उपवास करके दु:ख उठाता था, तब उससे भी मेरी नामधराई ही हुई।
11. और जब मैं टाट का वस्त्र पहिने था, तब मेरा दृष्टान्त उन में चलता था।
12. फाटक के पास बैठने वाले मेरे विषय बातचीत करते हैं, और मदिरा पीने वाले मुझ पर लगता हुआ गीत गाते हैं।
13. परन्तु हे यहोवा, मेरी प्रार्थना तो तेरी प्रसन्नता के समय में हो रही है; हे परमेश्वर अपनी करूणा की बहुतायात से, और बचाने की अपनी सच्ची प्रतिज्ञा के अनुसार मेरी सुन ले।
14. मुझ को दलदल में से उबार, कि मैं धंस न जाऊं; मैं अपने बैरियों से, और गहिरे जल में से बच जाऊं।
15. मैं धारा में डूब न जाऊं, और न मैं गहिरे जल में डूब मरूं, और न पाताल का मुंह मेरे ऊपर बन्द हो॥
16. हे यहोवा, मेरी सुन ले, क्योंकि तेरी करूणा उत्तम है; अपनी दया की बहुतायत के अनुसार मेरी ओर ध्यान दे।
17. अपने दास से अपना मुंह न मोड़; क्योंकि मैं संकट में हूं, फुर्ती से मेरी सुन ले।
18. मेरे निकट आकर मुझे छुड़ा ले, मेरे शत्रुओं से मुझ को छुटकारा दे॥
19. मेरी नामधराई और लज्जा और अनादर को तू जानता है: मेरे सब द्रोही तेरे साम्हने हैं।
20. मेरा हृदय नामधराई के कारण फट गया, और मैं बहुत उदास हूं। मैं ने किसी तरस खाने वाले की आशा तो की, परन्तु किसी को न पाया, और शान्ति देने वाले ढूंढ़ता तो रहा, परन्तु कोई न मिला।
21. और लोगों ने मेरे खाने के लिये इन्द्रायन दिया, और मेरी प्यास बुझाने के लिये मुझे सिरका पिलाया॥
22. उनका भोजन उनके लिये फन्दा हो जाए; और उनके सुख के समय जाल बन जाए।
23. उनकी आंखों पर अन्धेरा छा जाए, ताकि वे देख न सकें; और तू उनकी कटि को निरन्तर कंपाता रह।
24. उनके ऊपर अपना रोष भड़का, और तेरे क्रोध की आंच उन को लगे।
25. उनकी छावनी उजड़ जाए, उनके डेरों में कोई न रहे।