9. जब कि मैं ने उसको बादल पहिनाया और घोर अन्धकार में लपेट दिया,
10. और उसके लिये सिवाना बान्धा और यह कहकर बेंड़े और किवाड़े लगा दिए, कि
11. यहीं तक आ, और आगे न बढ़, और तेरी उमंडने वाली लहरें यहीं थम जाएं?
12. क्या तू ने जीवन भर में कभी भोर को आज्ञा दी, और पौ को उसका स्थान जताया है,
13. ताकि वह पृथ्वी की छोरों को वश में करे, और दुष्ट लोग उस में से झाड़ दिए जाएं?
14. वह ऐसा बदलता है जैसा मोहर के नीचे चिकनी मिट्टी बदलती है, और सब वस्तुएं मानो वस्त्र पहिने हुए दिखाई देती हैं।
15. दुष्टों से उनका उजियाला रोक लिया जाता है, और उनकी बढ़ाई हुई बांह तोड़ी जाती है।
16. क्या तू कभी समुद्र के सोतों तक पहुंचा है, वा गहिरे सागर की थाह में कभी चला फिरा है?